बलिया के गुरुकुलम् में श्रावणी उपाकर्म : आचार्य मोहित पाठक से जानिए कब और क्यों करते हैं श्रावणी उपाकर्म

बलिया के गुरुकुलम् में श्रावणी उपाकर्म : आचार्य मोहित पाठक से जानिए कब और क्यों करते हैं श्रावणी उपाकर्म

बलिया : सनातन संस्कृति में पूर्णिमा की तिथि को पूर्णत्व प्रदान करने वाली तिथि माना गया है। पुनर्जन्म, सृजन, अभिव्यक्ति और आध्यात्मिक उत्कर्ष से जुड़ी इस तिथि की महत्ता बताने वाले कई प्रसंग धर्म शास्त्रों में वर्णित हैं। आषाढ़ पूर्णिमा, ज्येष्ठ पूर्णिमा, वैशाख पूर्णिमा, फाल्गुन पूर्णिमा, माघ पूर्णिमा, शरद पूर्णिमा…. एक लम्बी सूची है पूर्णिमा पर्वों की। इन्हीं पर्वों में विशिष्ट है श्रावणी पूर्णिमा। वैदिक ऋषियों ने इस पर्व को ज्ञान पर्व की संज्ञा दी है।प्राचीन काल की तर्ज पर रामगढ़ गंगापुर में संचालित महर्षि भृगु वैदिक गुरुकुलम् द्वारा गंगा नदी के पावन तट पर श्रावण पूर्णिमा को श्रावणी उपाकर्म बटुकों के साथ कराया जायेगा।

गुरूकुलम् के प्रबंधक/अध्यक्ष आचार्य मोहित पाठक जी ने श्रावणी उपाकर्म से जुुड़ी तमाम जानकारी दी। बोले-उपाकर्म का अर्थ है प्रारंभ करना। धर्मग्रंथों में लिखा गया है-जब वनस्पतियां उत्पन्न होती हैं, श्रावण मास के श्रवण व चंद्र के मिलन (पूर्णिमा) या हस्त नक्षत्र में श्रावण पंचमी को उपाकर्म होता है। यह अध्ययन सत्र का समापन, उत्सर्जन या उत्सर्ग कहलाता था। यह सत्र माघ शुक्ल प्रतिपदा या पौष पूर्णिमा तक चलता था। श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के शुभ दिन रक्षाबंधन के साथ ही श्रावणी उपाकर्म का पवित्र संयोग बनता है।

आचार्य मोहित पाठक जी ने बताया कि हमारे वैदिक धर्म में स्वाध्याय की प्रधानता और महिमा हमेशा से रही है। ब्रह्मचर्य की समाप्ति तथा समापवर्तन के समय स्नातक को आचार्य एक उपदेश देता है- ‘स्वाध्यायान्मा प्रमदः’ और ‘स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम्’ अर्थात् अपने जीवन में कभी भी स्वाध्याय और प्रवचन (सुनने और सुनाने) से प्रमाद (आलस्य) नहीं करना। यह वाक्य केवल ब्रह्मचारी के लिए ही नहीं, अपितु सब मनुष्यों पर लागू हैं।

इस पर्व का नाम श्रावणी होने के कारण यह शब्द, श्रुति व श्रवण शब्दों से जुड़ा हुआ है। श्रुति से श्रवण, श्रवण शब्द श्रावणी बनकर आज का श्रावणी पर्व अस्तित्व में आए हैं। श्रुति वेद को कहते हैं, जिसका एक कारण आरम्भ में ब्रह्मचारियों को वेदों का ज्ञान श्रवण (सुना कर) कराया गया और कराया जाता रहा है। इसका सीधा संबंध वेदाध्ययन से है। चंद्र दोष से मुक्ति के लिए श्रावण पूर्णिमा को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। श्रावणी उपकर्म में पाप, उपपताका और महापताका से बचने का व्रत लिया जाता है। इसमें चोरी न करना, दूसरों की निन्दा न करना, खानपान का ध्यान रखना, हिंसा न करना, इन्द्रियों को वश में करना और सदाचारी होने के नियम सम्मिलित हैं।

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विशेषकर यह पुण्य दिन ब्राह्मण समुदाय के लिए बहुत महत्व रखता है। भारतीय संस्कृति में द्विजत्व और ब्राह्मणत्व का संबंध किसी जाति या वर्ग विशेष में जन्म लेने से नहीं है, बल्कि वह साधना की उच्च कक्षा से जुड़े सम्बोधन हैं। इसीलिए संस्कारों से द्विजत्व की प्राप्ति की बात कही जाती रही है । 

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‘भद्रायां ग्रहणं वापि पोर्णिमास्या यदा भवेत। उपाकृतिस्तु पंचम्याम कार्या वाजसेनयिभि:’।।

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संक्रांति व पूर्णिमा युति या ग्रहण पूर्णिमा युति में वाजसेनी आदि सभी शाखा के ब्राह्मणों को उपाकर्म (श्रावणी) पंचमी को कर लेनी चाहिए। शास्त्र सम्मत श्रावण उपाकर्म भद्रा दोष, ग्रहण युक्त पूर्णिमा, संक्रान्ति युक्त पूर्णिमा में नहीं किया जाता, तब उससे पूर्व श्रावण शुक्ल पंचमी नागपंचमी में श्रावणी स्नान उपाकर्म करने के शास्त्रोक्त निर्देश हैं। हेमाद्रिकल्प, स्कंद पुराण, स्मृति महार्णव, निर्णय सिंधु, धर्म सिंधु आदि ज्योंतिष व धर्म के निर्णय ग्रंथों में इसके प्रमाण हैं।

‘श्रावण शुक्लया: पूर्णिमायां ग्रहणं संक्रांति वा भवेतदा। यजुर्वेदिभि: श्रावण शुक्ल पंचम्यामुपाकर्म कर्तव्यं॥’

अर्थात् श्रावण पूर्णिमा में यदि ग्रहण या संक्रांति हो तो श्रावणी उपाकर्म श्रावण शुक्ल पंचमी को करना चाहिए। एक अन्य श्लोक के उल्लेख के अनुसार भद्रा में दो कार्य नहीं करना चाहिए एक श्रावणी अर्थात उपाकर्म, रक्षाबंधन, श्रवण पूजन आदि और दूसरा फाल्गुनि होलिका दहन।

भद्रा में श्रावणी करने से क्षति: भद्रा में श्रावणी करने से राजा की मृत्यु होती है तथा फाल्गुनी करने से नगर ग्राम में आग लगती है तथा उपद्रव होते हैं। श्रावणी अर्थात उपाकर्म रक्षाबंधन, श्रवण पूजन भद्रा के उपरांत ही की जा सकती है। लेकिन ग्रहण युक्त पूर्णिमा भी श्रावणी उपाकर्म में निषिद्ध है। ब्राह्मणों का यह अतिमहत्वपूर्ण कर्म हैं।

श्रावणी उपाकर्म के तीन पक्ष है...
आचार्य मोहित पाठक जी के मुताबिक प्रायश्चित्त संकल्प, संस्कार और स्वाध्याय। सर्वप्रथम होता है प्रायश्चित्त रूप में हेमाद्रि स्नान संकल्प। गुरु के सान्निध्य में ब्रह्मचारी गोदुग्ध, दही, घृत, गोबर और गोमूत्र तथा पवित्र कुशा से स्नानकर वर्षभर में जाने-अनजाने में हुए पापकर्मों का प्रायश्चित्त कर जीवन को सकारात्मकता से भरते हैं। स्नान के बाद ऋषिपूजन, सूर्योपस्थान एवं यज्ञोपवीत पूजन तथा नवीन यज्ञोपवीत धारण करते हैं। यज्ञोपवीत या जनेऊ आत्म संयम का संस्कार है। आज के दिन जिनका यज्ञोपवीत संस्कार हो चुका होता है, वह पुराना यज्ञोपवीत उतारकर नया धारण करते हैं और पुराने यज्ञोपवीत का पूजन भी करते हैं। इस संस्कार से व्यक्ति का दूसरा जन्म हुआ माना जाता है। इसका अर्थ यह है कि जो व्यक्ति आत्म संयमी है, वही संस्कार से दूसरा जन्म पाता है और द्विज कहलाता है। उपाकर्म का तीसरा पक्ष स्वाध्याय का है।

इसकी शुरुआत सावित्री, ब्रह्मा, श्रद्धा, मेधा, प्रज्ञा, स्मृति, सदसस्पति, अनुमति, छंद और ऋषि को घृत की आहुति से होती है। जौ के आटे में दही मिलाकर ऋग्वेद के मंत्रों से आहुतियां दी जाती हैं। इस यज्ञ के बाद वेद-वेदांग का अध्ययन आरंभ होता है। इस सत्र का अवकाश समापन से होता है। इस प्रकार वैदिक परंपरा में वैदिक शिक्षा साढ़े पांच या साढ़े छह मास तक चलती है। वर्तमान में श्रावणी पूर्णिमा के दिन ही उपाकर्म और उत्सर्ग दोनों विधान कर दिए जाते हैं। प्रतीक रूप में किया जाने वाला यह विधान हमें स्वाध्याय और सुसंस्कारों के विकास के लिए प्रेरित करता है। यह जीवन शोधन की एक अति महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक-आध्यात्मिक प्रक्रिया है । उसे पूरी गम्भीरता के साथ किया जाना चाहिए।

श्रावणी पर्व वैदिक काल से शरीर, मन और इन्द्रियों की पवित्रता का पुण्य पर्व माना जाता है । इस पर्व पर की जाने वाली सभी क्रियाओं का यह मूल भाव है कि बीते समय में मनुष्य से हुए ज्ञात-अज्ञात बुरे कर्म का प्रायश्चित करना और भविष्य में अच्छे कार्य करने की प्रेरणा देना। वर्षाऋतु के चार मास के अन्तर्गत विशेषरूप से पारायण यज्ञों का आयोजन किया जाता है। श्रावणी पर्व के अवसर पर बड़े-बड़े यज्ञ किये जाते हैं, जिससे वायुमण्डल सुगन्धित होकर स्वास्थ्य की दृष्टि से हितकर होता है।

निकामेनिकामे नः पर्जन्यों वर्षतु फलवत्यों नः ओषधयः पच्यन्तां योमक्षेमों नः कल्पताम्।

अर्थात- यजुर्वेद में प्रार्थना है कि यज्ञों का प्रभाव वर्षा पर भी पड़ता है। हम जब-जब चाहें बादल आएं और वर्षा करें। हमारी सारी वनस्पितियां फलों व अमोघ औषधियों से लदी हों। इस प्रकार यह विशेष वेदपाठ प्रारम्भ होकर साढ़े चार मास तक नियमपूर्वक बराबर चला जाता था और पौष मास में उसका ‘उत्सर्जन’ (त्याग या समापन) होता था।'

श्रावणी धार्मिक स्वाध्याय के प्रचार का पर्व है। सद्ज्ञान, बुद्धि, विवेक और धर्म की वृद्धि के लिए इसे निर्मित किया गया, इसलिए इसे ब्रह्मपर्व भी कहते हैं। श्रावणी पर रक्षाबंधन बड़ा ही हृदयग्राही है। श्रावणी वैदिक पर्व है। प्राचीन काल में ऋषि-मुनि इसी दिन से वेद पारायण आरंभ करते थे। इसे ‘उपाकर्म’ कहा जाता था। वेद का अर्थ है-सद्ज्ञान और ऋषि का तात्पर्य है वे आप्त महामानव जिनकी अपार करूणा के फलस्वरूप वह सुलभ-सरल हो सका। सद्ज्ञान का वरण जितना आवश्यक है और जिनसे वह प्राप्त हुआ था, जिनके परिश्रम, त्याग, तप व करूणा से सुगम हो सका, उनके दृष्टा ऋषि-मनीषियों को भी उतना ही श्रद्धास्पद मानना चाहिए एवं उनके प्रति हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करनी चाहिए।

सद्कर्म का संकल्पः श्रावणी पर्व पर द्विजत्व के संकल्प का नवीनीकरण किया जाता है। उसके लिए परंपरागत ढंग से तीर्थ अवगाहन, दशस्नान, हेमाद्रि संकल्प एवं तर्पण आदि कर्म किए जाते हैं। श्रावणी के कर्मकाण्ड में पाप-निवारण के लिए हेमाद्रि संकल्प कराया जाता है, जिसमें भविष्य में पातकों, उपपातकों और महापातकों से बचने, परद्रव्य अपहरण न करने, परनिंदा न करने, आहार-विहार का ध्यान रखने, हिंसा न करने , इंद्रियों का संयम करने एवं सदाचरण करने की प्रतिज्ञा ली जाती है। यह सृष्टि नियंता के संकल्प से उपजी है। हर व्यक्ति अपने लिए एक नई सृष्टि करता है। यह सृष्टि यदि ईश्वरीय योजना के अनुकूल हुई, तब तो कल्याणकारी परिणाम उपजते हैं, अन्यथा अनर्थ का सामना करना पड़ता है। अपनी सृष्टि में चाहने, सोचने तथा करने में कहीं भी विकार आया हो, तो उसे हटाने तथा नई शुरूआत करने के लिए हेमाद्रि संकल्प करते हैं। ऐसी क्रिया और भावना ही कर्मकाण्ड का प्राण है।

ब्रह्मा, वेद एवं ऋषियों का आह्वानः श्रावणी पर्व पर सामान्य देवपूजन के अतिरिक्त विशेष पूजन के अन्तर्गत ब्रह्मा, वेद एवं ऋषियों का आह्वान किया जाता है। ब्रह्मा सृष्टि कर्ता हैं। ब्राह्मीचेतना का वरण करने एवं अनुशासन के पालन करने से ही अभीष्ट की प्राप्ति हो सकती है। उस विधा को अपनाने, जानने एवं अभ्यास में लाने वाले ही श्रेष्ठता के प्रतीक-पर्याय होते हैं। इस पर्व पर ज्ञान के अवतरण की वेदों के रूप में अभ्यर्थना की जाती है। ज्ञान से ही विकास का आरंभ होता है। अज्ञान ही अवनतिका मूल है। अज्ञान से अशान्ति पनपती और अशक्ति अभाव को जन्म देती है। ज्ञान का प्रत्यक्षीकरण करने के लिए वेदपूजन किया जाता है।

ऋषि पूजन का महत्वः ऋषि पूजन के पीछे उच्चतम आदर्श की परिकल्पना निहित है। ऋषि जीवन ने ही महानतम जीवनश्चर्या का विकास और अभ्यास करने में सफलता पाई थी। ऋषि जीवन आंतरिक समृद्धि एवं ऐश्वर्य का प्रतीक है। यह सौम्य जीवन के सुख और मधुरता का पर्याय है। आज के समाज की भटकन का कारण ऋषित्व का घनघोर अभाव है। इस पूजन से इन्हीं तत्त्वों की वृद्धि की कामना की जाती है।

वेदमंत्रों से अभिमंत्रित रक्षासूत्रः रक्षाबंधन का पर्व भी इसी दिन मनाया जाता है। रक्षासूत्रों को ऋषि, मुनि, ब्राह्मण वेदमंत्रो से अभिमंत्रित करते थे। तप और त्याग की शक्ति का मिलन एवं वेदमंत्रों के साथ योग-संयोग अति प्रभावशाली होता है। इस क्रम में श्रेष्ठ आचार्य अपने यजमानों को रक्षासूत्र बाँधते हैं।

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