जन्मदिवस पर विशेष : 1857 क्रांति के अग्रदूत अमर शहीद मंगल पांडे और बलिया

जन्मदिवस पर विशेष : 1857 क्रांति के अग्रदूत अमर शहीद मंगल पांडे और बलिया

बलिया की धरती यूं ही 'बागी धरती' नहीं कही जाती, बल्कि आजादी की लड़ाई के इतिहास में बलिया ने सन् 1857 से ही जिस क्रांति,विप्लव,गौरव,जोश,उत्साह एवं साहस का परिचय दिया कि वह बागी पन सन् 1942 में चरम पर अपना रूप दिखाया,जिसके चलते बलिया के बागी पन की पहचान 'बलिया में सन्  बयालीस की क्रांति' के रूप में दिखाई देने लगी और बलिया सर्व प्रथम 21अगस्त,1942 को ही अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त हो गया, किंतु सन् 1942 की इस क्रांति की आधारशिला  1857 में ही मंगल पांडे द्वारा रख दी गयी थी।

मंगल पांडे का जन्म 30 जनवरी, 1831 को तत्कालीन गाजीपुर जिला के अन्तर्गत बलिया तहसील के नगवा गांव में हुआ था। जब 1 नवम्बर,1879 को बलिया ज़िले का गठन हुआ तो नगवा बलिया जिले के बलिया तहसील का अंग हो गया। मंगल पांडे के पिता का नाम सुदिष्ट पांडे एवं माता का नाम जानकी देवी था। मंगल पाण्डेय तीन भाई - मंगल पांडे,गिरिश्वर पांडे एवं ललित पांडे थे। इनमें से केवल ललित पांडे की ही शादी हुई, जिनके दो पुत्र महादेव पांडे एवं महावीर पांडे था, जिनकी वंश परम्परा अब भी कायम है।

मंगल पांडे 18 वर्ष की आयु में ही सेना में भर्ती हो गए थे। ये अपने साथियों में गम्भीरता एवं बहादुरी के लिए पहचाने जाते थे। अंग्रेज लेखक डब्ल्यू टी फिशेट ने अपनी पुस्तक 'दी टेल आफ दि ग्रेट म्युनिटी' में लिखा है कि "मंगल पांडे में अच्छे सैनिक के सभी गुण विद्यमान थे। वे इतने साहसी थे कि वे अपनी मृत्यु का आलिंगन भी शांतिपूर्वक करने की क्षमता रखते थे।" वास्तव में मंगल पांडे एक निर्भीक एवं वीर सैनिक थे।

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मंगल पांडे बैरकपुर (बंगाल) में अंग्रेजी सेना की 34 वीं नेटिव इन्फेंट्री में कार्यरत थे।  ऐसा उल्लेख मिलता है कि 31 जनवरी,1857 को जब वे अपने जलपात्र से जल भरकर रसोई घर की तरफ जा रहे थे, तभी एक खलासी (जो संभवतः जाति का भंगी था) मंगल पांडे से पानी पिलाने का आग्रह किया। किंतु अपने संस्कारवश मंगल पांडे ने पानी पिलाने से मना कर दिया।

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इस पर खलासी ने झुंझलाते हुए व्यंग भरे शब्द में कहा कि 'आपको अपनी जाति का बड़ा घमण्ड है। देखते हैं अब आप उससे कैसे बचते हैं,जब अंग्रेजों द्वारा आपको गाय एवं सूअर की चर्बी से मुलायम की हुई कारतूस को दांण्त से काटने के लिए दिया जायेगा।' इस बात का उल्लेख सुरेन्द्रनाथ सेन की पुस्तक "1857" एवं हेनरी बैबरीज की पुस्तक "ए कम्प्रीहेंसिव हिस्ट्री आफ इण्डिया" में मिलता है। यह बात मंगल पांडे को दिल में चुभ गयी और उसी दिन से वो अंग्रेजों के खून के प्यासे हो गए।

कारतूस में चर्बी के प्रयोग की बात आग की तरह चारों तरफ फैल गयी। हिन्दू एवं मुस्लिम दोनों सिपाही गुस्से से तमतमा गए। सैनिकों ने चर्बी की जगह मोम एवं तेल से मुलायम की हुई कारतूस हकी मा़ग की गयी, किंतु उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया गया। तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड कैनिंग ने भी इस संदर्भ में ईस्ट इंडिया कंपनी के संचालकों से बात की, किंतु बात - चीत बेअसर रही। चार्ल्स वाल ने अपनी पुस्तक " हिस्ट्री आफ इण्डियन म्यूनिटी" में लिखा है कि  '25 फरवरी,1857 को 19वीं रेजीमेंट के कमाण्डर माईकेल ने अपने सैनिकों से अगले दिन परेड में बिना बंदूक के ही आने का आदेश दिया। शायद वह सैनिकों की निष्ठा की परख करना चाहता था।  किंतु अगले दिन जब सिपाही परेड में आए तो सभी के पास उनकी बंदूक थी। यह देखकर माइकल आश्चर्य चकित हो गया कि किसी ने भी उसके आदेश का पालन नहीं किया।' माइकल ने जब इस पर नाराजगी प्रकट की तो सिपाहियों ने हिंसात्मक विद्रोह की धमकी दे डाली।

उपर्युक्त घटना के बाद 29 मार्च,1857 को मंगल पांडे सैनिक वेष - भूषा में शस्त्रों से पूर्णत: सज - धज कर परेड मैदान में  आ गए। यह मैदान छावनी से मात्र 100 गज की दूरी पर था। 26 वर्ष के इस जाबाज वीर ने अपने सैनिक साथियों की हुंकार लगाई कि, ' भाईयों बैरक से बाहर निकलो,मेरे पास आओ, अंग्रेजों को मार भगाओ और उनका कब्जा खत्म करो।' मंगल पांडे के आवाज में इतना जोश था कि इस हुंकार से ऐसा लगा जैसे बिजली कौंध गई हो। अंग्रेजी खेमे में विद्रोह की पहली चिनगारी फैलाकर मंगल पांडे वह कर गए थे जो तब तक और कोई नहीं कर पाया था।

मंगल पांडे द्वारा मैदान हुंकार लगाने पर लेफ्टिनेंट जनरल  ह्यूसन की निगाह उन पर पड़ चुकी थी। ह्यूसन ने मंगल पांडे को गिरफ्तार करने हेतु जमादार से कहने हेतु दौड़ा, किंतु जमादार ने ह्यूसन की बात को अन सुना कर दिया। उसी दौरान घोड़े पर चढ़कर लेफ्टिनेंट बाफ दौड़ता हुआ मंगल पांडे की तरफ बढ़ रहा था, तब तक हृयूसन ने चिल्लाते हुए बाफ को चेतावनी दी कि वह दाहिने तरफ मुड़ जाय,क्यों कि तब तक मंगल पांडे अपनी बंदूक में गोली भर चुके थे। बाफ कुछ कर पाता,तब तक मंगल पांडे की बंदूक गरज उठी और बाफ तथा घोड़ा दोनों एक ही साथ चित्त हो गए। इस बात का उल्लेख मैलसन की पुस्तक 'इण्डियन म्युनिटी' में हुआ है। गोली लगने बाद बाफ सम्भला और उसने भी मंगल पांडे पर गोली दागी, किंतु उसका निशाना चूक गया। मंगल पांडे ने जब देखा कि ह्यूसन भी उनकी तरफ घात लगाए बढ़ रहा है तो उन्होंने उसे भी ललकारा और तत्काल गोली चला दिया। ह्यूसन गम्भीर रूप से घायल होकर छटपटाने लगा और कुछ देर बाद उसकी इह लीला समाप्त हो गयी। इसके बाद मंगल पांडे ने गोली भरने का समय न देखकर अपने कमर से तलवार खींचा और घायल बाफ पर टूट पड़े और उसको मौत के घाट उतार दिए।

बाफ का घोड़ा तो पहले ही स्वर्ग सिधार गया था। इस दृश्य को कुछ दूरी पर खड़े लगभग 30 सैनिक  देख रहे थे , किंतु जमादार सहित किसी ने भी मंगल पांडे का साथ नहीं दिया, जबकि वे बार - बार अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह में साथ देने हेतु गुहार लगाते रहे , किंतु उनकी बात को अनसुनी कर दिए।

इस घटना की खबर जैसे ही कमाण्डिंग आफिसर जनरल हियर्सी को लगी तो वो भी भागते हुए घटना स्थल पर आया और मंगल पांडे को पकड़ लेने तथा उन्हें शस्त्र विहीन करने हेतु जमादार को आदेश दिया , किंतु जमादार ने हीयर्सी की बात का अनसुना कर दिया। इस पर हियर्सी क्रोधित हो गया और अनुशासनहीनता के आरोप में 6 अप्रैल, 1857 को जमादार का कोर्ट मार्शल हुआ एवं उसे फांसी की सजा सुनाई गयी। अंग्रेज इतिहासकार चार्ल्स  वाल ने अपनी पुस्तक  'हिस्ट्री आफ इण्डियन म्युनिटी' में लिखा है कि एक बार चार सैनिकों ने मंगल पांडे को पकड़ने का प्रयास किया, किंतु जमादार ने उन्हें डांटकर ऐसा करने से मना कर दिया। वहां उपस्थित कर्नल ह्वेलर ने जमादार को पकड़ने का आदेश दिया , किंतु उसकी किसी ने नहीं सुनी।' इसके बाद शेख पलटू नामक सिपाही ने मंगल पांडे को पकड़ने की कोशिश की, किंतु हिन्दू- मुस्लिम सभी सिपाहियों ने मिलकर शेख पलटू पर पत्थरों एवं जूतों की बौछार करने लगे। यदि शेख पलटू मंगल पांडे को छोड़कर भाग नहीं गया होता तो क्रोधित सिपाहियों द्वारा वहीं मार दिया गया होता। इस बात का उल्लेख क्रिस्टोफर हिबर्ट की पुस्तक ' दि ग्रेट म्यूनिटी में हुआ है।

कर्नल हियर्सी अपने सैनिकों के इस व्यवहार से अत्यन्त क्रोधित हो गया था। अपनी नाराज़गी को दिखाने एवं उन सैनिकों को तौहीन करने हेतु हियर्सी ने उन सैनिकों के साममने ही शेख पलटू को वहीं तात्कालिक आदेश से हवलदार बना दिया। उस समय हियर्सी इतना अधिक डर गया था कि घटना स्थल पर उपस्थित अपने दोनों लड़कों से उसने कहा कि यदि मैं मारा जाऊं तो तुम लोग इस बागी सिपाही ( पांडे ) से जरूर बदला लेना और इसे मार डालना। हियर्सी ने वहीं पर यह भी घोषणा किया कि अब हिन्दू सिपाही अंग्रेजों के प्रति वफादार नहीं रहे। इन बातों का उल्लेख एडवर्ड जिलियट की पुस्तक  'डेयरिंग डीड्स आफ इण्डियन हिस्ट्री' में हुआ है।

परेड मैदान में कर्नल हियर्सी की उपस्थिति से भी मंगल पांडे के विद्रोही तेवर में कोई बदलाव नहीं आया। किंतु जब मंगल पांडे ने अपनी आवाज, अपनी पुकार एवं अपनी हुंकार का अन्य सिपाहियों पर कोई असर पड़ते दिखाई नहीं दिया तो उन्होंने स्वयं को ही गोली का निशाना बना लिया। फलस्वरूप वे गम्भीर रूप से घायल हो गये। सैनिक अदालत में उनका कोर्ट मार्शल हुआ और 8 अप्रैल, 1857 को बैरकपुर में ही उन्हें फांसी के फंदे पर लटका दिया गया। यद्यपि कि उनको फांसी 7 अप्रैल,1857 को ही होने वाली थी, किंतु कोई भी स्थानीय जल्लाद फांसी देने को तैयार नहीं हुआ,तब 8 अप्रैल, 1857 को चार जल्लाद कलकत्ता से बुलाए गये, जिन्होंने मंगल पांडे को फांसी पर लटकाया। मंगल पांडे को फांसी देने के संदर्भ में एक बात यह भी आती है कि जिस दिन हियर्सी ने मंगल पांडे को फांसी की सजा सुनाई, उससे 10 दिन पहले ही उन्हें फांसी दी जा चुकी थी। हियर्सी ने मंगल पांडे को फांसी की सजा देने का निर्णय 18 अप्रैल 1857 को दिया था।

फांसी उससे 10 दिन पहले 8 अप्रैल, 1857 को ही दे दी गयी थी। इस बात का उल्लेख जबलपुर के संग्रहालय में सुरक्षित जनेरल आर्डर बुक में विद्यमान है। इस बात से यह स्पष्ट होता है कि 18 अप्रैल, 1857 को फांसी देने को सुनाया गया निर्णय महज कागजी खानापूर्ति थी और 8 अप्रैल, 1857 को फासी दे दिए जाने की बात को अत्यन्त गोपनीय रखी गयी थी। इसका मतलब यह है कि अंग्रज मंगल पांडे के जीवित रहने से उत्पन्न खतरे को झेलने के लिए तैयार नहीं थे और उन्हें भयंकर विद्रोह होने का डर था।

इस प्रकार स्पष्ट है कि मंगल पांडे ने सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के अग्रदूत के साथ ही साथ प्रथम शहीद भी बनने का गौरव प्राप्त किया। मंगल पांडे अंग्रेजी सेना के ऐसे पहले भारतीय सिपाही थे , जिन्होंने किसी अंग्रेज आफिसर पर गोली चलाई। इस घटना से अंग्रेज अधिकारियों में भय व्याप्त हो गया। बैरकपुर छावनी की सभी अंग्रेज औरतें कलकत्ता चली गयीं। मंगल पांडे का नाम पूरे भारत में विद्रोह का पर्याय माना जाने लगा।  यही नहीं अंग्रेजों ने सभी विद्रोही सिपाहियों को 'पांडीज' ( पांडे की जमात का ) कहना प्रारम्भ कर दिया। अंग्रेज इतिहासकार चार्ल्स वाल की पुस्तक 'हिस्ट्री आफ इण्डियन म्यूनिटी' में उल्लेख हुआ है कि 'मंगल पांडे को फांसी पर चढ़ाए जाने के बाद बंगाल के अन्य सभी रेजीमेंटों में तेजी से विद्रोह की ज्वाला फैल गयी।

इससे नाराज होकर अंग्रेज सैनिक अधिकारियों द्वारा 19 वीं रेजीमेंट को भंग कर सिपाहियों से शस्त्र छीन लिए गये। 4 मई, 1857 को मंगल पांडे वाली 34 वीं नेटिव इन्फेंट्री को भी भंग कर दिया गया। किंतु इससे सिपाहियों के मनोबल में किसी प्रकार की कमी नहीं आई और जब वे अपने घरों से वापस लौटे और जब पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार 10 मई, 1857 को देश व्यापी विद्रोह का समाचार उन्हें प्राप्त हुआ तो वो अपने - अपने स्थान पर आजादी  की क्रांति के अग्रदूत बन गए।

कुछ अंग्रेज इतिहासकारों ने मंगल पांडे में विद्रोह के दिन उनकी विशेष उत्तेजना का कारण उनका भांग एवं गांजे के नशे में चूर होना बताया है। इस संदर्भ में 'बलिया और उसके निवासी' के लेखक दुर्गा प्रसाद गुप्त ने अपनी इस पुस्तक में लिखा है कि " शायद अंग्रेजों को यह नहीं मालूम कि गंजेड़ी या भंगेड़ी जांन नहीं लिया करते और न तो वे तलवार या बंदूक से खेलते हैं। मंगल पांडे नशे में धुत अवश्य थे, किंतु वह नशा देश और धर्म को अंग्रेजों के चंगुल से बचा लेने का था।

डाॅ. गणेश पाठक, पर्यावरणविद् बलिया

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